बागों पनघट पर तो अक्सर मिलते रहते हैं
RATNESH MEHRA |
: 01 :
बागों पनघट पर तो अक्सर मिलते रहते हैं
चाँद मेरी गलियों में चलते-फिरते रहते हैं
बर्षों से ताल्लुक नहीं है मेरा पढ़ने लिखने से
लेकिन तेरी खातिर कॉलेज आते-जाते रहते हैं
: 02 :
है अभी बांकी मोहब्बत, तुम समझ इतना न पाईं
अश्क से लतफत है अब तक, आंख के साये में झाईं
शायरी में अपनी बातें, हम तुम्हे भेजेंगें कब तक
साँस भी हैं टूटने को, तुम मगर अब तक न आईं
: 03 :
किस्मत की देवी रूठी है, किस्मत खाली-खाली है
हर मंदिर-मस्जिद में अब तो, इक-इक शब्द सवाली है
खबर नहीं थी ऐसे भी, जीना पड़ सकता है जीवन
ख़ुशी कहीं खो बैठे हैं, सर पर छाई बदहाली है
मैं अपनों से लड़कर जीता वह हारी हुई कहानी हूँ
मैं एक समंदर हूँ जो खुद में सौ-सौ नदिया समां चुका
मैं प्यार बुझा देता तेरी लेकिन खुद खरा पानी हूँ
: 04 :
मैं सीता का राम नहीं न राधा की श्याम कहानी हूँमैं अपनों से लड़कर जीता वह हारी हुई कहानी हूँ
मैं एक समंदर हूँ जो खुद में सौ-सौ नदिया समां चुका
मैं प्यार बुझा देता तेरी लेकिन खुद खरा पानी हूँ
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